भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़मीं चल रही है कि सुब्हे-ज़वाले-जमां है / नासिर काज़मी
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:28, 19 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नासिर काज़मी |अनुवादक= |संग्रह=दी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ज़मीं चल रही है कि सुब्हे-ज़वाले-जमां है
कहो ऐ मकीनो कहां हो, ये कौन मकां है
परीशान चीज़ों की हस्ती को तन्हा न समझो
यहां संगरेज़ा भी अपनी जगह इक जहां है
कभी तेरी आंखों के तिल में जो देखा था मैंने
वो ही एक पल महमिले-शौक़ का सारबां है
कहीं तू मेरे इश्क़ से बदगुमां हो न जाये
कई दिन से होंटो पे तेरे नहीं है न हां है
ख़ुदा जाने हम किस खराबे में आकर बसे हैं
जहां अर्ज़-ए-अहले-हुनर निकहते-राएगां हैं
जहानों के मालिक ज़मानों से पर्दा उठा दे
कि दिल इन दिनों बेनियाज़े-बहारो-खिज़ां हैं
तिरे फैसले वक़्त की बारगाहों में दायम
तिरे इस्म हर चार सू हैं मगर तू कहां है
ख़ुमारे-गरीबी में बे-ग़म गुज़रती है 'नासिर'
दरख़्तों से बढ़कर मुझे धूप का सायबां हैं।