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ज़मीं चल रही है कि सुब्हे-ज़वाले-जमां है / नासिर काज़मी

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ज़मीं चल रही है कि सुब्हे-ज़वाले-जमां है
कहो ऐ मकीनो कहां हो, ये कौन मकां है

परीशान चीज़ों की हस्ती को तन्हा न समझो
यहां संगरेज़ा भी अपनी जगह इक जहां है

कभी तेरी आंखों के तिल में जो देखा था मैंने
वो ही एक पल महमिले-शौक़ का सारबां है

कहीं तू मेरे इश्क़ से बदगुमां हो न जाये
कई दिन से होंटो पे तेरे नहीं है न हां है

ख़ुदा जाने हम किस खराबे में आकर बसे हैं
जहां अर्ज़-ए-अहले-हुनर निकहते-राएगां हैं

जहानों के मालिक ज़मानों से पर्दा उठा दे
कि दिल इन दिनों बेनियाज़े-बहारो-खिज़ां हैं

तिरे फैसले वक़्त की बारगाहों में दायम
तिरे इस्म हर चार सू हैं मगर तू कहां है

ख़ुमारे-गरीबी में बे-ग़म गुज़रती है 'नासिर'
दरख़्तों से बढ़कर मुझे धूप का सायबां हैं।