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"ज़ात हंसों के कुल और पलटु / ओमप्रकाश सारस्वत" के अवतरणों में अंतर

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<poem>आखिर तुम मेरी जात  
 
<poem>आखिर तुम मेरी जात  

23:55, 21 अगस्त 2009 का अवतरण

आखिर तुम मेरी जात
बिगाड़ के ही छोड़ोगे
तुम नहीं छोड़ोगे मुझे
मनुष्य के नाम से अभिहित होने योग्य

देखो,धूर्तता और शराफत
दोनों की सीमा होती है
पर मैं कब तलक
अपने पूर्व की निन्दा सुन-सुन के
बदले में गाता रहूँगा
तुम्हारे पुरुखों के गीत
और उदारमना बनके
तुम्हारीए कीर्ति को
सागर की लहरों की तरह गिन-गिन कर
मिट्टी में मिलाता रहूँगा
अपने परदादाओं का यश
(स्वार्थ के ऊपर उठने के दिखावे में)

अरे यह कैसी प्रीत है कि
तुम तो मेरी मंडी पर चढ़ बैठो
और मैं तुम्हारे चरणों को
कमलों की तरह छू-छू कर
होता रहूँ पुलकित
(चरण कमल बन्दौं हरिराई की मुद्रा में)

बन्धु! बन्धुत्व
समान सौहार्द
और उभयत्र मैत्री का नाम है
सौहार्द जब खो बैठता है अपनी खुशबू
तब वहाँ स्नेह के नाम पर
रह जाते हैं केवल 'नाम के फूल'

तुमने मेरे समान तराशी है
औरों की सहनशीलता
लोगों ने रोज़ी माँगी
तुमने सूखे की आड़ में
पैदावार पर भाषण झाड़ दिया
नये-नये बीजों के नाम गिनते हुए

लोगों ने सुरक्षा माँगी
तुमने कानून के नाम पर लाठी लहरा दी
लोगों को जेलों का डर दिखाते हुए

लोगों ने न्या माँगा
तुमने अपने अधिकार पढ़ सुनाए
अपनी डफली बजाते हुए।

और जब लोगों ने स्वयं कुछ करने की सोची
तो तुमने उन्हें
झूठ,बहाने,आश्वासनों लालच और सुधार का
पंचामृत पिला दिया
व्रट का महात्मय सुनाते हुए

देखो बहानों के शुष्क पत्रों से
ढके नहीं जाते जवान होते
ज्वलन्त प्रश्नों के अग्नि-शरीर

आज देश की पोथी को
साम्प्रदायिकता का घुन
चाट जाने की फिराक में है

हर जगह असंतोष
बमों-सा फट रहा है
उधर आसाम जल रहा है
तो इधर पंजाब कट रहा है
अपने ही अंगों को बचाये रखना मुश्किल हो गया है
देश कुछ इस तरह से बट रह है

कुछ सधे हुए गले
अल्पमत की तर्ज़ में
स्वार्थों को गा रहे हैं
और कुछ संगत के नाम पर
दीपक की गत में
शाबाशी बजा रहे हैं।

यूँ कहने को भारत
माता है
पर उसका सम्मान है
कितनी इज्जत पारा है
चिड़िया घरों में गैंडे
मोटे हो रहे हैं

तुम कहीं भी जाओ
कोई पूछ नहीं
कहीं भी देखो
काम सूतभर नहीं
हर आदमी
माई का लाल बन कर सीट पर बैठा है
आम आदमी गिड़गिड़ा कर लौट आता है
अधिकारी काग़ज़ों में आँकड़े दिखाता हइ

एक बार बस कुर्सी मिल जाए
पलटू पल-छिन में विधाता हो जाता है
दुनिया भर का ज्ञान उसके पास, पैदल पैदल चला आता है
सारी शिक्षा उसकी जिह्वा पर आ विराजती है
समस्त कलाएं उससे पनाह माँगती हैं
वह एक ही साथ
रामायण,महाभारत,गीता, कुरान बाइबल
और पुराणों पर धड़ल्ले से बोलता है
बस अपना हृदय नहीं खोलता है

ओ! दिन-रात,हरियाली के नाम पर रोने वाले
सावन के अंधों !
जंगल का हर पेड़ ही जब
उनकी चौख़ट बनने को उगा है
तब फिर हक के अनुसार भी
व्यर्थ है तुम्हारी लाठियों की फरियाद

वैसे भी जंगल को लेकर
देश की सम्पत्ती पर रोना
और कटे वृक्षों की जड़ो में
कुल्हाड़ियों के अक्स ढूँढना
जले हुए कोयलों में
आग की जात ढूँढने जैसा है

(वैसे जंगल की हरी आग
जब अपनी जात बदलती है
तब सारे पेड़ों की परिभाषा
अंगारे हो जाती है।)

तुम्हें ज्ञात नहीं शायद कि
दुनिया के करोड़ों पेड़ों की नर्सरी
यहाँ कुछ एक क्यारियों में ही उगती है
बाकी क्यारियों की ज़मीन पेड़ों की जड़ों में
चुभती है।

मेरे मित्र! देश का महत्तम-चरित्र!
एक कविता का विषय नहीं है
यहाँ देश की चारों भुजाओं ने
समझौते के आधार पर
भ्रष्टाचार की चूल को
मजबूती से पकड़ रखा है
ताकि एकता की एकता रहे
और एकता में रहे बल।