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"ज़िन्दगी के पेच ओ खम से हम न थे वाक़िफ़ मगर! / धीरज आमेटा ‘धीर’" के अवतरणों में अंतर
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ज़िन्दगी के पेच ओ खम से हम न थे वाक़िफ़ मगर, | ज़िन्दगी के पेच ओ खम से हम न थे वाक़िफ़ मगर, | ||
− | हम | + | हम जिए,दिल से जिए,छोड़ी नहीं कोई कसर! |
तू सरापा खूबसूरत थी, मगर ऐ ज़िन्दगी! | तू सरापा खूबसूरत थी, मगर ऐ ज़िन्दगी! | ||
− | हम ने | + | हम ने पाई ही नहीं, वो देखने वाली नज़र! |
तू है सागर नूर का, और आत्मा इक बूँद है, | तू है सागर नूर का, और आत्मा इक बूँद है, | ||
− | रूह हो | + | रूह हो जाए मुकम्मल, तुझमें मिल जाये अगर! |
− | + | देर की क्यों खाक छाने, जब वो हर ज़र्रे में है, | |
− | क्यों न उसके अक्स को दिल में ही | + | क्यों न उसके अक्स को दिल में ही ढूँढे हर बशर! |
हम गरीबों के मुक़द्दर में भला कैसी बहार? | हम गरीबों के मुक़द्दर में भला कैसी बहार? | ||
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"चैन" था या ज़ीस्त के साहिल पे लिक्खा लफ़्ज़ था, | "चैन" था या ज़ीस्त के साहिल पे लिक्खा लफ़्ज़ था, | ||
− | जब मिला तब | + | जब मिला तब लहर ए ग़म को हो गई इसकी खबर! |
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16:06, 29 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
ज़िन्दगी के पेच ओ खम से हम न थे वाक़िफ़ मगर,
हम जिए,दिल से जिए,छोड़ी नहीं कोई कसर!
तू सरापा खूबसूरत थी, मगर ऐ ज़िन्दगी!
हम ने पाई ही नहीं, वो देखने वाली नज़र!
तू है सागर नूर का, और आत्मा इक बूँद है,
रूह हो जाए मुकम्मल, तुझमें मिल जाये अगर!
देर की क्यों खाक छाने, जब वो हर ज़र्रे में है,
क्यों न उसके अक्स को दिल में ही ढूँढे हर बशर!
हम गरीबों के मुक़द्दर में भला कैसी बहार?
हमने कागज़ के गुलों पे इत्र छिड़का उम्र भर!
"चैन" था या ज़ीस्त के साहिल पे लिक्खा लफ़्ज़ था,
जब मिला तब लहर ए ग़म को हो गई इसकी खबर!