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ज़िन्दगी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैं तुम तक आ गया/ विनय प्रजापति 'नज़र'

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लेखन वर्ष: 2004

ज़िन्दगी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैं तुम तक आ गया
सरे-राह मैं अपनी मंज़िल पा गया
चराग़ों का नूर हो, चश्मे-बद्दूर हो
तुम्हें देखकर दिल अँधेरों से दूर आ गया

ख़ुशियों के दीप जल उठे, ग़म सारे बुझ गये
पतझड़ उतरा, गुल शाख़-शाख़ खिल गये
इक-इक धड़कन में नाम तुम्हारा है
तुम्हारी मोहब्बत का जादू मुझपे छा गया

ख़ुशबू-ख़ुशबू मैंने तुमको पाया सनम
मोहब्बत में तेरी ख़ुद को मिटाया सनम
तेरी पहली नज़र से क़त्ल हुआ था मैं
लहू के हर क़तरे में तेरा प्यार समा गया

राज़ दिल के सभी आँखों से बयाँ कर दो
राहे-मुहब्बत मेरी तुम आसाँ कर दो
नहीं कोई अरमाँ तेरी चाहत के सिवा
बस तेरा ही चेहरा दिलो-दिमाग़ पे छा गया