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"ज़ुबाँ मिली पर कभी नहीं कुछ कहता है जूता / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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इसीलिए पैरों के नीचे रहता है जूता।
  
कुछ दिन में विरोध इसका मर जाता इसीलिए,
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विरोध इसका मर जाता कुछ दिन में इसीलिए
जीवन भर आका की लातें सहता है जूता।
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जीवन भर आक़ा की लातें सहता है जूता।
  
पाँवों की रक्षा करते करते फट जाता, पर,
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पाँवों की रक्षा करते-करते फट जाता, पर,
 
आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता।
 
आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता।
  
वफ़ादार कितना भी हो सब देते फेंक इसे,
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भूल वफ़ादारी इसकी सब देते फेंक इसे,
 
बूढ़ा होकर जब मुँह से कुछ कहता है जूता।
 
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नाले के गंदे पानी में बहता है जूता।
 
नाले के गंदे पानी में बहता है जूता।
  
कैसे लिख दूँ शे’र आख़िरी जूते के हक में,
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कैसे लिख दूँ शे’र आख़िरी जूते के हक़ में,
जीवन भर हर हक से वंचित रहता है जूता।
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जीवन भर हर हक़ से वंचित रहता है जूता।
 
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13:06, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण

ज़बाँ मिली पर कभी नहीं कुछ कहता है जूता।
इसीलिए पैरों के नीचे रहता है जूता।

विरोध इसका मर जाता कुछ दिन में इसीलिए
जीवन भर आक़ा की लातें सहता है जूता।

पाँवों की रक्षा करते-करते फट जाता, पर,
आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता।

भूल वफ़ादारी इसकी सब देते फेंक इसे,
बूढ़ा होकर जब मुँह से कुछ कहता है जूता।

अंत समय कचरे में जलता या फिर सड़ने तक,
नाले के गंदे पानी में बहता है जूता।

कैसे लिख दूँ शे’र आख़िरी जूते के हक़ में,
जीवन भर हर हक़ से वंचित रहता है जूता।