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ज़ुबाँ मिली पर कभी नहीं कुछ कहता है जूता / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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ज़बाँ मिली पर कभी नहीं कुछ कहता है जूता।
इसीलिए पैरों के नीचे रहता है जूता।

विरोध इसका मर जाता कुछ दिन में इसीलिए
जीवन भर आक़ा की लातें सहता है जूता।

पाँवों की रक्षा करते-करते फट जाता, पर,
आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता।

भूल वफ़ादारी इसकी सब देते फेंक इसे,
बूढ़ा होकर जब मुँह से कुछ कहता है जूता।

अंत समय कचरे में जलता या फिर सड़ने तक,
नाले के गंदे पानी में बहता है जूता।

कैसे लिख दूँ शे’र आख़िरी जूते के हक़ में,
जीवन भर हर हक़ से वंचित रहता है जूता।