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जाने कहाँ छिप गई वो / मधु शुक्ला

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याद आ जाती है
अक्सर मुझको
'वह'
दुबली - पतली, साँवली सी
चंचल, फुर्तीली लड़की
भागती हुई गिलहरी के पीछे
पकड़ने को उसकी झबरीली पूँछ
रह जाती थी जो हर बार
आते-आते उसके नन्हें हाथों की गिरफ्त से
बस... बस कुछ ही दूर ।

पर बिना किसी थकान या निराशा के
दोहराती रहती थी, 'वह'
अपना क्रम यों ही
होकर बेफ़िक्र,
अपनी कुहनियों की खरोंच से
फ़्राक में लगी हुई धूल - मिट्टी से
और खुलकर लटक रहे
चोटी के फीतों से
तिरती रहती थी 'वह' हवा की तरह
यहाँ - वहाँ, — इधर - उधर
झूलती हुई कभी पेड़ों की डालियों से
तोड़ती हुई आम, जामुन और निबोरियों को
बीनती हुई शंख और सीपियाँ
नदी की तपती रेत से
और कभी - कभी
झाँकती हुई चिड़ियों के घोंसलों में
चुपचाप
सबसे बचाकर नज़र
वह बेख़बर
इस अनचीन्ही दुनिया से
खेलते हुए, छुपा-छुपी का खेल
कहते हुए पकड़ो - पकड़ो !
छुओ मुझे ! ढूँढ़ो मुझे !

देखते ही देखते, जाने कहाँ छुप गई 'वो'
छोड़कर अपने अधबने घरौंदे
गुड्डे-गुड़ियों के ये अवशेष
शंख और सीपियों के ढेर
समय की रेत पर नन्ही उंगलियों के निशान
न जाने कहाँ ओझल हो गई 'वो'
कहते हुए
पकड़ो मुझे — छुओ मुझे — ढूँढ़ो मुझे —