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जा के पैर न फटी बिवाई / कविता वाचक्नवी

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जा के पैर न फटी बिवाई.....


दिन भर लंबी दूरी मापने वाले
पाँवों तले
भद्दी, मैली, छलछलाती
दरारें हैं, मित्र!
जो टीसती हैं
रात भर...
दिवस भर......
नई खिंचती हैं
ग्रीष्म की गर्मी में
शीत की खुश्की में,
छिपाना पड़ता है
भीड़-भाड़ में
मेला-बहार में।

ढाँपे रहती हूँ
सारे कटाव
वरना
खूब चलते रहने में
तलुवों को भरमाए रखने की
सच्चाई उघड़ जाएगी
वितृष्णा जगाएगी।