भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिएँगे इस तरह / उत्पल बैनर्जी

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:00, 10 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमने ऐसा ही चाहा था
कि हम जिएँगे अपनी तरह से
और कभी नहीं कहेंगे -- मज़बूरी थी,
हम रहेंगे गौरैयों की तरह अलमस्त
अपने छोटे-से घर को
कभी ईंट-पत्थरों का नहीं मानेंगे

उसमें हमारे स्पन्दनों का कोलाहल होगा,
दुःख-सुख इस तरह आया-जाया करेंगे
जैसे पतझर आता है, बारिश आती है
कड़ी धूप में दहकेंगे हम पलाश की तरह
तो कभी प्रेम में पगे बह चलेंगे सुदूर नक्षत्रों के उजास में।

हम रहेंगे बीज की तरह
अपने भीतर रचने का उत्सव लिए
निदाघ में तपेंगे.... ठिठुरेंगे पूस में
अंधड़ हमें उड़ा ले जाएँगे सुदूर अनजानी जगहों पर
जहाँ भी गिरेंगे वहीं उसी मिट्टी की मधुरिमा में खोलेंगे आँखें।,

हारें या जीतें -- हम मुक़ाबला करेंगे समय के थपेड़ों का
उम्र की तपिश में झुलस जाएगा रंग-रूप
लेकिन नहीं बदलेगा हमारे आँसुओं का स्वाद
नेह का रंग... वैसी ही उमंग हथेलियों की गर्माहट में
आँखों में चंचल धूप की मुस्कराहट...
कि मानो कहीं कोई अवसाद नहीं
हाहाकार नहीं, रुदन नहीं अधूरी कामनाओं का।

तुम्हें याद होगा
हेमन्त की एक रात प्रतिपदा की चंद्रिमा में
हमने निश्चय किया था --
अपनी अंतिम साँस तक इस तरह जिएँगे हम

कि मानो हमारे जीवन में मृत्यु है ही नहीं!!