भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जितना जीता हूँ उतना मरता हूँ / कांतिमोहन ’सोज़’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
|रचनाकार=कांतिमोहन ’सोज़’
+
|रचनाकार=कांतिमोहन 'सोज़'
 
|अनुवादक=
 
|अनुवादक=
 
|संग्रह=
 
|संग्रह=

12:50, 14 सितम्बर 2015 का अवतरण

जितना जीता हूँ उतना मरता हूँ ।
इस तरह सुबहो-शाम करता हूँ ।।

मैं भी जीता हूँ धौंकनी की तरह
साँस लेता हूँ आह करता हूँ ।

ज़िन्दगी मेरी जान लेती है
ज़ीस्त को मैं तबाह करता हूँ ।

एक जन्नत में दोज़ख़ी बनकर
तेरे कूचे से क्यूँ गुज़रता हूँ ।

अब तो मेरा कोई वुजूद नहीं
अब ज़माने को क्यूँ अखरता हूँ ।

बुलबुला बनके फूट जाता हूँ
और क़यामत से बच निकलता हूँ ।

सोज़ मैं तो रवा-रवी<ref>जल्दी, हड़बड़ी</ref> में हूँ
क्यूँ तेरे दर पे जा ठहरता हूँ ।।

1-9-2015

शब्दार्थ
<references/>