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जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकाती है / अज्ञेय

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जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकाती है
उतना ही मैं प्रेत हूँ ।
जितना रूपाकार-सारमय दिख रहा हूँ
रेत हूँ ।

फोड़-फोड़ कर जितने को तेरी प्रतिभा
मेरे अनजाने, अनपहचाने
अपने ही मनमाने
अंकुर उपजाती है-
बस, उतना मैं खेत हूँ ।