भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकाती है / अज्ञेय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:05, 2 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=आँगन के पार द्वार / अज्ञेय }} {{KKCatKavita}}…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकाती है
उतना ही मैं प्रेत हूँ ।
जितना रूपाकार-सारमय दिख रहा हूँ
रेत हूँ ।

फोड़-फोड़ कर जितने को तेरी प्रतिभा
मेरे अनजाने, अनपहचाने
अपने ही मनमाने
अंकुर उपजाती है-
बस, उतना मैं खेत हूँ ।