भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जिन्हें हम देवता समझते हैं / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
<poem>
 
<poem>
 
जिन्हें हम देवता समझते हैं।
 
जिन्हें हम देवता समझते हैं।
वो महज़ अर्चना समझते हैं।
+
वो फ़क़त अर्चना समझते हैं।
  
 
जो हवा की दिशा समझते हैं।
 
जो हवा की दिशा समझते हैं।
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
  
 
चाँद रूठा हैं क्योंकि उसको हम,
 
चाँद रूठा हैं क्योंकि उसको हम,
एक रोटी सदा समझते हैं।  
+
एक रोटी सदा समझते हैं।
  
 
तोड़ कर देख लें वो पत्थर से,
 
तोड़ कर देख लें वो पत्थर से,

17:18, 24 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण

जिन्हें हम देवता समझते हैं।
वो फ़क़त अर्चना समझते हैं।

जो हवा की दिशा समझते हैं।
उन्हें हम धूल सा समझते हैं।

चाँद रूठा हैं क्योंकि उसको हम,
एक रोटी सदा समझते हैं।

तोड़ कर देख लें वो पत्थर से,
जो हमें काँच का समझते हैं।

फूल चढ़ते जो राम के सर वो,
ख़ुद को रब से बड़ा समझते हैं।