भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में / फ़ातिमा हसन

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:41, 5 नवम्बर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़ातिमा हसन }} {{KKCatGhazal}} <poem> जिन ख़्वाह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिन ख़्वाहिशों को देखती रहती थी ख़्वाब में
अब लिख रही हूँ उन को हक़ीक़त के बाब में

इक झील के किनारे परिंदों के दरमियाँ
सूरज को होते देखा था तहलील आब में

ख़्वाबों पे इख़्तियार न यादों पे ज़ोर है
कब ज़िंदगी गुज़ारी है अपने हिसाब में

इक हाथ उस का जाल पे पतवार एक में
और डूबता वजूद मिरा सैल-ए-आब में

पुरवाई चल के और भी वहशत बढ़ा गई
हल्की सी आ गई थी कमी इजि़्तराब में

आज़ाद हैं तो बाग़ का मौसम ही और है
ख़ुशबू है तेज़ रंग भी गहरा गुलाब में

अपनी ज़मीं की आब-ओ-हवा रास है मुझे
मेरे लिए कशिश नहीं कोई सराब में

देखो जुनूँ में उन के खिलौने न तोड़ना
तुम को रक़म करेंगे ये बच्चे किताब में