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"जीवन एक दीप ही तो है / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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मुझको कहते हुए कि 'मैंने ऐसी  कविता लिख ली है
 
मुझको कहते हुए कि 'मैंने ऐसी  कविता लिख ली है
 
प्राणाधिके ! विश्व जिसको पढ़ मेरे लिए करेगा शोक--
 
प्राणाधिके ! विश्व जिसको पढ़ मेरे लिए करेगा शोक--
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कि और कुछ दिन जी न सका क्यों मैं अपनी इस प्रतिभा के  
 
कि और कुछ दिन जी न सका क्यों मैं अपनी इस प्रतिभा के  
 
पूर्ण प्रस्फुटन तक रचने को 'मानस'-सदृश काव्य कोई
 
पूर्ण प्रस्फुटन तक रचने को 'मानस'-सदृश काव्य कोई
 
खिलते जब सब अंग कला के अपने आप समय पाके?
 
खिलते जब सब अंग कला के अपने आप समय पाके?
 
कितनी, कैसी, उच्च भावना-निधि जग ने मुझमें खोयी!
 
कितनी, कैसी, उच्च भावना-निधि जग ने मुझमें खोयी!
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और तभी झुक जायेंगे नीरव हो सम्मुख लाखों शीश
 
और तभी झुक जायेंगे नीरव हो सम्मुख लाखों शीश
 
श्रद्धा से, तब सांध्य नखत-सा मैं नभ में मुस्काऊँगा
 
श्रद्धा से, तब सांध्य नखत-सा मैं नभ में मुस्काऊँगा
 
लिपटा निज गौरव में, तुम रोकर चिल्लाओगी, हा ईश!
 
लिपटा निज गौरव में, तुम रोकर चिल्लाओगी, हा ईश!
 
क्या अपनी यह कीर्ति देखने भी मैं आज न आऊँगा?
 
क्या अपनी यह कीर्ति देखने भी मैं आज न आऊँगा?
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प्रेत-सदृश, तुम कलियाँ चुनकर, अरे! रो रही हो तुम तो!
 
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सहसा तभी पवन जायेगा हिला द्वार पर के द्रुम को
 
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03:05, 22 जुलाई 2011 के समय का अवतरण


जीवन एक दीप ही तो है और मृत्यु वह आँधी है
इसे बुझाने में समर्थ जो, क्यों फिर भी देती तुम रोक
मुझको कहते हुए कि 'मैंने ऐसी  कविता लिख ली है
प्राणाधिके ! विश्व जिसको पढ़ मेरे लिए करेगा शोक--

कि और कुछ दिन जी न सका क्यों मैं अपनी इस प्रतिभा के
पूर्ण प्रस्फुटन तक रचने को 'मानस'-सदृश काव्य कोई
खिलते जब सब अंग कला के अपने आप समय पाके?
कितनी, कैसी, उच्च भावना-निधि जग ने मुझमें खोयी!

और तभी झुक जायेंगे नीरव हो सम्मुख लाखों शीश
श्रद्धा से, तब सांध्य नखत-सा मैं नभ में मुस्काऊँगा
लिपटा निज गौरव में, तुम रोकर चिल्लाओगी, हा ईश!
क्या अपनी यह कीर्ति देखने भी मैं आज न आऊँगा?

प्रेत-सदृश, तुम कलियाँ चुनकर, अरे! रो रही हो तुम तो!
सहसा तभी पवन जायेगा हिला द्वार पर के द्रुम को