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जीवन का अर्थ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा

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‘जीवन’

जिसका अर्थ

मैं जानता नहीं

मुझे जीना चाहता है ।


‘मृत्यु’

जिसका अर्थ

मैंने बाबूजी से पूछा था

जाने कहाँ चले गये

बिना उत्तर दिये

शायद खेतों की ओर

नहीं, स्कूल गये होंगे

आज सात साल, तीन महीना

और बीसवाँ दिन भी बीत गया

लौट कर नहीं आये

क्या मृत्यु इसी को कहते हैं ?

हाँ, उत्तर अगर हाँ है

तो मैं जीना चाहूँगा इसे ।


क्योंकि –

माँ ने आकाश से रस्सी बाँध दी है

आ गया बसंत

बसंत आ गया

सामने हवाओं का झूला है

गाँव में सज रहा मेला है

पीली बर्फ जम गई खेतों पर

हरी आग लग गई जंगल में

दृश्यों में सिमट गई दृष्टि

समय थक गया

नब्ज़ें रूक गई रफ़्तार की

लेकिन मैं बढ़ता रहा

आँधियाँ विश्राम करने लगीं

किनारे पर पहुचने से पहले

नाव ऊंघने लगी

धरती ने ठीक से पाँव छुए भी नहीं

और चलने लगी धरती ।


परिवर्तन,

कुछ तो परिवर्तन हुआ

माँ ने भीगी हथेलियों से

स्पर्श किया गालों को, जगा दिया

फिर दिखाया मुझे मेरा ‘लक्ष्य’

कल रात स्वप्न में

तोड़ कर मुट्ठी भर आकाश

और कुछ अधखिले सितारे

जेब में रख गये बाबूजी

वो आकाश वो सितारे

अब भी हैं मेरी जेब में

अब भी है याद ‘लक्ष्य’

झरना चढ़ने लगा पहाड़ पर ।

परिवर्तन,

कुछ तो परिवर्तन हुआ

जीवन सोचता है जिसे

क्या वही मैं हूँ

जीवन चाहता है जिसे

क्या वही मैं हूँ

जीवन माँगता है जिसे

क्या वही मैं हूँ

मैं भी सोचने लगा हूँ जीवन को

मैं भी चाहने लगा हूँ जीवन को

मैं भी माँगने लगा हूँ जीवन को ।


‘जीवन’

जिसका अर्थ

मैं जानता नहीं

मुझे जीना चाहता है ।