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जीवन / मोहन साहिल

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यूँ भी बिताया जा सकता था जीवन
सूरज पूर्व से उठ कर
पश्चिम में डूब जाता है ज्यों द
हकता हुआ
भरता हुआ उजाला
इर्द-गिर्द के अँधेरों में

पेड़ की तरह ज़मीन से उठ कर
आकाश की ओर मौन यात्रा भी
हो सकता था जीवन
अपनी परिधि को
ठंडी छाया से भरता हुआ

पहाड़ की तरह
सहते हुए धूप
संभालते हुए तूफान
रहते हुए अविचल
जिया जा सकता था
मगर डूबना नहीं चाहते थे हम
सूरज बनने के पश्चात
राख कर गई हमारी दहकती देह
धरती को
बनकर पेड़
बजाय आकाश में बढ़ने के
फैल गए आस-पास
नष्ट कर डाले हमने
हज़ारों नन्हे पौधे

बने हम पर्वत
भुरभुरे ज्वालामुखी
भीतर भरा लावा
हिलाता रहा हमारा अस्तित्व

जिया नहीं हमने
चाहा था जैसा प्रकृति ने
नहीं हुए हम वैसे
चाहिए था होना जैसा
सबके लिए
अपने लिए भी
सुविधाजनक।