भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जूही / इवान बूनिन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: इवान बूनिन  » संग्रह: चमकदार आसमानी आभा
»  जूही

खिली हुई है जूही हरे वन में सुबह-सवेरे
मैं तेरेक नदी पर से गुज़र रहा हूँ
दूर पर्वतों पर चमक रही हैं किरणें
इस रुपहली आभा से मन भर रहा हूँ

शोर मचाती नदी चिंगारियों से रोशन है
गरम जंगल में जूही ख़ूब महक रही है
और वहाँ ऊपर आकाश में गरमी है या ठंड है
जनवरी की बर्फ़ नीले आकाश में दहक रही है

वन जड़वत है, विह्वल है सुबह की धूप में
जूही खिली है पूरे रंग में, अपने पूरे रूप में
चमकदार आसमानी आभा फैली है अलौकिक
शिखरों की शोभा भी मोहे है मन मायावी स्वरूप में

(अप्रैल 1904)

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय