भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जो खुल कर अपनी भी ख़ामी कहते हैं / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

Kavita Kosh से
Tanvir Qazee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:18, 4 अप्रैल 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |अंगारों पर ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जो खुलकर अपनी भी ख़ामी कहते हैं
हम ख़ुद को उनका अनुगामी कहते हैं

चटकी छत, हिलती दीवारें, टूटा दर
आप हमें किस घर का स्वामी कहते हैं

तुम बोलो इस देश की संसद को संसद
हम तो उसे सांपों की बामी कहते हैं

सच्चाई का नाम नया है मजबूरी
सेवा को सब आज ग़ुलामी कहते हैं

हमसे ज़िन्दा है उल्फ़त का कारोबार
लोग हमें दिल का आसामी कहते हैं

अच्छा है क्या ख़ुद की खिल्ली उड़वाना
क्यों सबसे अपनी नाकामी कहते हैं

मत बोलो हल्के हैं शेर ‘अकेला’ के
जाने क्या क्या शायर नामी कहते हैं