भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जो मेरे हाथ में माचिस की तीलियां होती/ सर्वत एम जमाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna}} रचनाकार=सर्वत एम जमाल संग्रह= …)
 
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
{{KKGlobal}}
 
{{KKGlobal}}
                  {{KKRachna}}
+
{{KKRachna
                  रचनाकार=सर्वत एम जमाल
+
|रचनाकार=सर्वत एम जमाल  
                  संग्रह=
+
}}
                  }}
+
{{KKCatGhazal}}
                  {{KKCatGazal}}
+
<poem>
                  <poem>
+
 
+
 
जो मेरे हाथ में  माचिस की तीलियाँ होतीं   
 
जो मेरे हाथ में  माचिस की तीलियाँ होतीं   
 
फिर  अपने शहर में क्या इतनी झाड़ियाँ होतीं   
 
फिर  अपने शहर में क्या इतनी झाड़ियाँ होतीं   

21:43, 19 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

जो मेरे हाथ में माचिस की तीलियाँ होतीं
फिर अपने शहर में क्या इतनी झाड़ियाँ होतीं

पचास साल इसी ख्वाब में गुजार दिये
बहार होती, चमन होता, तितलियाँ होतीं

गरीब जीते हैं कैसे अगर पता होता
तुम्हारे चेहरे पे कुछ और झुर्रियां होतीं

वो कह रहा है कि दरवाजे बंद ही रखना
मैं सोचता हूँ कि इस घर में खिड़कियाँ होतीं

अगर सलीके से तकसीम पर अमल होता
तो ये समझ लो कि हर हाथ रोटियाँ होतीं

ये सिले आब अगर अपना कद घटा लेता
तो पौधे कद को बढ़ा लेते बालियाँ होतीं

बस एक भूख पे सर्वत बिखर गए वरना
जमीं पे रोज बहार आती, मस्तियाँ होतीं

____________________________________