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ज्ञान-ध्यान कुछ काम न आए / बालस्वरूप राही

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ज्ञान ध्यान कुछ काम न आए
हम तो जीवन-भर अकुलाए ।

पथ निहारते दृग पथराए
हर आहट पर मन भरमाए ।

झूठे जग में सच्चे सुख की
क्या तो कोई आस लगाए ।

देवालय हो या मदिरालय
जहाँ गए जाकर पछताए ।

तड़क-भड़क संतो की ऐसी
दुनियादार देख शरमाए ।

माल लूट का सबने बाँटा
हम ही पड़े रहें अलसाए ।

जो बिक जाता धन्य वही है
जो न बिके मूरख कहलाए ।

टिकट बाँटने के नाटक में
धूर्त महानायक बन छाए ।

शिष्टाचार भ्रष्टता दोनों—
ने अपने सब द्वैत मिटाए ।

जहाँ बिछी शतरंज वही ही
शातिर बैठे जाल बिछाए ।

अब के यूँ खैरात बँटी है
सारा किस्सा दिल बहलाए ।

दुर्जन पार लगाता नैया
सज्जन किसका काम बनाए ।

राही तो सीधे-सादे है
कौन भला क्या उनसे पाए ।