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ज्ञान जगत का / पृथ्वी पाल रैणा

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खुली आँख के ढेरों सपने,
अंधियारे की भेंट चढ़ गए।
रत्ती भर के उजियारे से,
जीवन में उत्साह भर गया।

जग की बाजी हार चुका जो,
जीवन की इस भागदौड़ में।
आज अचानक जाने कैसे,
बैतरणी को पार कर गया।
तुम क्या समझो कैसी थी वह-
रात सुबह तक कैसे गुज़री,
चलते चलते कैसे इतने-
सुनसानों को पार कर गया।
पैर थके न हिम्मत टूटी-
अंगारों पर चलते चलते,
नट के जैसे रस्सी पर वह-
सात समंदर पार कर गया।
जो सोचा, समझा और जाना-
सब कुछ अचानक व्यर्थ हो गया,
जो अनुभव में उतरा, जीवन-
में अनुपम उद्धार कर गया।
अनजाने ही सारा जीवन-
कोयले के बाज़ार में बीता,
चाहे अनचाहे ही मन में
कालिख का अंबार भर गया।
अहंकार में बल तो था पर
सांस की डोर बड़ी कच्ची थी,
जीवन को थामे रखने में
सारी ताकत हार कर गया।
हम ने जो चाहा सो देखा,
हम ने जो सोचा सो पाया।
आखिर ज्ञान जगत का सारी
मेहनत को बेकार कर गया।