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झलक रही हैं उन आँखों में शोख़ियाँ कैसी / गुलाब खंडेलवाल

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झलक रही हैं उन आँखों में शोख़ियाँ कैसी!
हमारे दिल में तड़पती है बिजलियाँ कैसी!

चिराग़ बुझ न गए हों कहीं मकानों के
हवामें तैरती आती हैं सिसकियाँ कैसी!

जहाँ से दोस्त कई मुँह फिराके लौट गए
ये बीच-बीच में आती हैं बस्तियाँ कैसी!

कोई तो छिप के सितारों से देखता है हमें
खुली हुई हैं अँधेरे में खिड़कियाँ कैसी!

भले ही बाग़ में उनके न खिल सके हैं गुलाब
मिली हैं पर ये निगाहों में शोख़ियाँ कैसी!