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झुलस - झुलस मुरझाये सपने / छाया त्रिपाठी ओझा

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जीवन की इस तेज धूप में
झुलस झुलस मुरझाये सपने।

घर पावन सा वो मिट्टी का
नेह मिले जो अपने हिस्से
छूट गया अम्मा का आंचल
नहीं रहे नानी के किस्से
गुड्डे गुड़ियों के संग कितने
हमने खूब सजाये सपने।
जीवन की इस तेज धूप में
झुलस झुलस मुऱझाये सपने।

पीहर गयी खुशी ज़्यों अपने
धड़कन - धड़कन भटकें यादें
अधरों पर है मौन सुशोभित
अंतस में चिहुंकें फरियादें
देख देख ऋतुओं के मन को
नयनों ने छलकाये सपने।
जीवन की इस तेज धूप में
झुलस झुलस मुरझाये सपने।

विस्मृत हो जाते दुख सारे
और न आकर चलतीं रातें
अपने पांव धरे फूलों पर
साथ हमारे चलतीं रातें
निष्ठुर जग के ही द्वारे पर
जा जाकर मुस्काये सपने।
जीवन की इस तेज धूप में
झुलस झुलस मुरझाये सपने।