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ठोमहा भर घाम (कविता) / चेतन भारती

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चल ते भइया थोरिक गांव चली,
छोंड़ तो चौंधियावत डगर ल ष
सुरता कर तरिया के सुरुज,
चउल धुंगिया-धूर्रा क फरक ल।

हाथी उस मस्त रेंगना तो देएख,
धरती के रखवार आगू आवत हे।
ये किसनहा उठके रोज बिहनहा,
खेती में सपना बोंये आवत हे।
उघरा तन, मन उज्जर, मुस्कात,
बता खपरा छानी, पक्का महल के फरक ल।

मेकरा जाला अस छाये राजनीति म,
फंसे फाफा अस गाँव फड़फड़ावत हे।
चलती हवा के भभकी म आके ,
ररुहा अंधियारी घला डरुवावत हेे।
इहां कहां धंधाय हे बपुरा अंजोरी?
‘ठोमहा भर घाम’ बर ओखर तरस ल

रुख म चटके पाना के का ठिकाना,
आज निही ते काली खाल्हे आही।
बोकरा के गर बंधाय हे डोरी,
कतक दिन ले ओ खैर मनाही।
नवा राज म सुकुवा कती लुकाय हे,
करम करत देख, अपन लाल रकत ल