भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डूबते हरसूद पर पिकनिक / निरंजन श्रोत्रिय

Kavita Kosh से
Gayatri Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:05, 21 अप्रैल 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निरंजन श्रोत्रिय |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब तक ज़िन्दा था
भले ही उपेक्षित रहा हो
मगर इन दिनों चर्चा
और आकर्षण का केन्द्र है हरसूद

जुट रही तमाशबीनों की भीड़
कैसा लगेगा यह शहर जलमग्न होकर
हरसूद एक नाव नहीं थी जिसमें कर दिया गया हो कोई छेद
जीता-जागता शहर था
जिसकी एक-एक ईंट को तोड़ा उन्हीं हाथों ने
जिन्होंने बनाया था कभी पाई -पाई जोड़ कर

फैला है एक हज़ार मेगावाट का अँधेरा
जलराशि का एक बेशर्म क़फन बनकर
जिसके नीचे दबी हुई है सिसकियां और स्वप्न
                   किलकारियां और लोरियां
                   ढोलक की थाप और थिरकती पदचाप
                   नोंकझोंक और मान-मनौवल
यह कैसा दौर है!
तलाशा जाता है एक मृत सभ्यता को खोद-खोद कर
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और भीमबेटका में
और एक जीवित सभ्यता
देखते-ही-देखते
अतल गहराईयों में डुबो दी जाती है.

कभी गये हों या न गये हों
फिलहाल आप सभी आमंत्रित हैं
देखने को एक समूचा शहर डूबते हुए
सुनने को एक चीत्कार जल से झांकते
शिखर और मीनारों की....!

अभी ठहरें कुछ दिन और
फिर नर्मदा में नौकाविहार करते समय
बताएगा खिवैया
--बाबूजी, इस बखत जहाँ चल रही है अपनी नाव
उसके नीचे एक शहर बसता था कभी-हरसूद!