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डूबने की हर घड़ी में / कविता वाचक्नवी

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डूबने की हर घड़ी में


और तुमने
डूबने की हर घड़ी में
डुबकियाँ कुछ बीच पानी में
हवा में कुछ
लहर के जोर में बहकर
लगाई

और तुमने कुछ
भँवर के वेग का
रौरव सुना था
काल के भीगे पटल पर
गुड़गुड़ाता,

और तुमने
चीख को
पानी, हवा में
था तिराया
बुलबुले भर कुछ
उठे थे

और फिर
हर बार तुमने
एक तिनका
थामने की
कोशिशें कीं।

बहुत सारा यत्न
श्रम, आशा, दुराशा
भावना, संभावना में खूब
बहते-डूबते
हर बार चाहा
कहीं हो
आधार ऐसा
जो तुम्हें
फिर से मिला दे
उस किनारे से
उसी छूटे हुए
बिछुडे़ हुए
औ’ दूर जाते
कूल, तट से।

किंतु
तिनके पकड़ कर
की भुल ऐसी
यों कि फिर
कुछ थक गए
इतना निरर्थक
थाम कर
बेबस सहारे
विवश से
अवलंब सारे,

कौन तिनकों से
भला कब
पार उतरा?
वे सदा देते
मरण हैं।