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तन्हाई / विजय कुमार विद्रोही

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मेरी कलम नहीं लिखती, ज़ुल्फों,चालों पर गालों पर ।
स्वर टूटा जाता है मेरा , कुछ मौलिक कंगालों पर ।
भारत के झंडे पे अब , गौ माता काटी जाती है ।
अमन, प्रेम, संबंधों वाली , राहें पाटी जाती है ।

अंतरमन पूछे ये भारत , ज़िंदाबाद नहीं है क्या ।
तुझमें टीपू, वीर शिवा , राणा,आज़ाद नहीं है क्या ।
उत्तर ना दे पाता , अपने रक्तिम आँसू पीता हूँ ।
एक अरब आबादी फिर भी , तन्हाई में जीता हूँ ।

वो दाँई गोदी से उठकर, बाँई गोद में जा बैठा ।
सारे रिश्ते – नाते भूला , रहता है ऐंठा – ऐंठा ।
भारत माँ के आँचल की वो,आज किनारी फाड़ रहा ।
कुछ ना कर पाऐगा फिर भी , घाटी में चिंघाड़ रहा ।

कह दो उस से भारत के दुश्मन से,प्यार नहीं करते ।
कुछ भी हो जाऐ लेकिन हम ,पहला वार नहीं करते ।
भारत माँ के रिसते घाव , मैं गीतों से सीता हूँ ।
एक अरब आबादी फिर भी ,तन्हाई में जीता हूँ ।

नये ख़ून में अब तो मुझको, कोई जोश नहीं दिखता ।
खुदीराम,अब्दुल हमीद, सावरकर बोस नहीं दिखता ।
बहती है कायरता तन में , अब ना कोई रवानी है ।
देश की नवपीढ़ी का लगता, ख़ून हो गया पानी है ।

मेरी कलम दुधारी है ख़ुद , मेरा ख़ून बहाती है ।
देशप्रेम लिखती है फिर भी ,“विद्रोही”कहलाती है ।
यौवनधन भरपूर वतन है, फिर भी रीता-रीता हूँ ।
एक अरब आबादी फिर भी , तन्हाई में जीता हूँ ।