भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"तन में मन में शुद्ध मिट्टी है अभी तक गाँव में / 'सज्जन' धर्मेन्द्र" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=ग़ज़ल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
छो |
||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
खेत में तकरार होती एकता फिर मेड़ पे, | खेत में तकरार होती एकता फिर मेड़ पे, | ||
− | कुछ लड़कपन कुछ नवाबी है अभी तक गाँव में। | + | कुछ लड़कपन, कुछ नवाबी है अभी तक गाँव में। |
मुँह अँधेरे ही किसी की याद में महुआ तले, | मुँह अँधेरे ही किसी की याद में महुआ तले, | ||
पंक्ति 18: | पंक्ति 18: | ||
एक दीपक एक बाती है अभी तक गाँव में। | एक दीपक एक बाती है अभी तक गाँव में। | ||
− | स्वाद में बेजोड़ लेकिन रंग इसका साँवला, | + | स्वाद में बेजोड़ लेकिन रंग इसका साँवला, |
इसलिए गुड़ की जलेबी है अभी तक गाँव में। | इसलिए गुड़ की जलेबी है अभी तक गाँव में। | ||
सर झुकाता है सभी को छू चुके जब आसमाँ, | सर झुकाता है सभी को छू चुके जब आसमाँ, | ||
− | बाँस का ये पेड़ | + | बाँस का ये पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में। |
− | चाय का वर्षों पुराना स्वाद | + | चाय का वर्षों पुराना स्वाद ज़िंदा है अभी, |
शुक्र है चौरे की तुलसी है अभी तक गाँव में। | शुक्र है चौरे की तुलसी है अभी तक गाँव में। | ||
</poem> | </poem> |
12:43, 26 फ़रवरी 2024 के समय का अवतरण
तन में मन में शुद्ध मिट्टी है अभी तक गाँव में।
घर को जाती राह कच्ची है अभी तक गाँव में।
खेत में तकरार होती एकता फिर मेड़ पे,
कुछ लड़कपन, कुछ नवाबी है अभी तक गाँव में।
मुँह अँधेरे ही किसी की याद में महुआ तले,
आँसुओं की सेज बिछती है अभी तक गाँव में।
एक वायर से हजारों बल्ब जलवाता नगर,
एक दीपक एक बाती है अभी तक गाँव में।
स्वाद में बेजोड़ लेकिन रंग इसका साँवला,
इसलिए गुड़ की जलेबी है अभी तक गाँव में।
सर झुकाता है सभी को छू चुके जब आसमाँ,
बाँस का ये पेड़ बाक़ी है अभी तक गाँव में।
चाय का वर्षों पुराना स्वाद ज़िंदा है अभी,
शुक्र है चौरे की तुलसी है अभी तक गाँव में।