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तर्जनी की छुवन भर हुई देह में / अनुराधा पाण्डेय
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तर्जनी की छुवन भर हुई देह में, हाय! पाषाण मन यह पिघलने लगा।
मौन थे सच अधर नैन वाचाल पर, राग इतने झरे, उर मचलने लगा।
कुछ तुहिन कण सतत थे गिरे व्योम से, कँपकपी खिड़कियो से पसरती रही
इस सघन शीत की रात में तन बदन, प्रीत की आँच में सद्य जलने लगे।