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तस्वीर / सपना भट्ट

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किसी ठिठके हुए क्षणांश में
इधर मेरी पसलियों में
जब तुम्हारी स्मृतियाँ गड़ती हैं,
तुम्हारे भी कंठ में एक विह्वल हिचकी का
सुरमई नील उभर आता होगा न...

मिथ्या हैं सब घाव हिय के
मिथ्या ही है इनकी पीड़ा भी
तुम्हारे आने और आकर चले जाने की
जगह कब था यह हृदय
जो छब भीतर ठहर गयी है वह अब कहाँ जा सकेगी

मन जब तब
याद के ख़ूब लाल छालों से भर जाता है
जैसे वसंत घाटी को भर देता है
लकदक बुरांश के सुर्ख़ फूलों से

प्रतीक्षा का भंवर
मन के बीचों बीच घुमड़ता रहता है
बीती भली बातें संतोष से नहीं
अकुलाहट से भरती हैं।

लोग अक्सर कहते हैं
ये क्या हर वक़्त
उदासी का लिबास पहने फिरती हो कवि!

मैं मुस्कुराते हुए सोचती हूँ
कि मेरे पास तो
तुम्हारी एक भी मुस्कुराती हुई तस्वीर नहीं।