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तारीख़ गवाही दे कि आज़ाद हुए हम।
नदियों के किनारों पे ही आबाद हुए हम।
अपनों के लिए सख़्त हुए ज़ीस्त में अपनी,
दुश्मन के लिए और भी फ़ौलाद हुए हम।
 
वो दिन भी हमें याद बँटा मुल्क हमारा,
कहने को नहीं कुछ भी कि बर्बाद हुए हम।
दीवार ने मज़हब की ग़ज़ब हम पे वो ढाया,
ख़ुशहाल भी होते हुए नाशाद हुए हम।
 
इस तरह लुटे हम कि ज़ुबां खोल न पाए,
ये बात अलग ‘नूर’ कि फ़रियाद हुए हम।
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