भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारा प्रेम / श्रीविलास सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:54, 4 फ़रवरी 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीविलास सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारा प्रेम
वैसे ही
जैसे पहाड़ के सीने से
निकले कोई झरना
और बिखर जाए मोती हो कर।
जैसे
ज्वर से तप्त माथे पर
रखे कोई बर्फ़ीली पट्टी
और पीड़ा को मिल जाए
एक शीतल विश्राम।
जैसे
ओस से भीगी दूब पर
पड़े हों पाव सुबह सुबह
और एक ठंडक सी
भर गयी हो ज़ेहन में धीरे से।
जैसे
धीरे से उतरे वैशाख की शाम
आम के पेड़ों पर
और भर दे कच्चे फलों में
ललछौही मिठास।
जैसे
आषाढ़ में पड़े पहली फुहार
और गमक उठें खेत खलिहान
पुरवैया के झोंके से।
जैसे
जाड़े की किसी उदास शाम
आए ठंडी हवा का
एक हल्का झोंका
और तुम लिपट जाओ मुझसे
गर्म शाल की तरह।