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तुम्हारे शहर में / ओमप्रकाश सारस्वत

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सिर्फ मेरी तुम्हारी
कहानी नहीं
यह हर इक जिंदगी का
महोच्चार है,
यहाँ ताले सलाखों का
बंधन नहीं
श्वास-दर-श्वास पर
बंधु दीवार है,
इस खुले आसमां के
तले घुट के भी
हम जिए जा रहे हैं
जिए जा रहे हैं

हमने कई युग बिताए यहाँ सफर में,
पर थकन इतनी शायद कभी हो-न-हो,
अब तो हर डग कई पापों-सा भारी है
जिंदगी इतनी खारी कभी हो-न-हो
इस विषमज्वार के उफनते मेले में-
विष पिए जा रहे हैं पिए जा रहे हैं

आँख ने आँख से जब भी पूछा
कभी तो वह मूक-सी वाणी में रो गई
दर्द कम न हुआ, शब्दों की लाश पर
प्रीत विधवा बनी-सी तभी सो गई
मन में अपने-पराए की तड़पन लिए
कई उमड़ती घटाएँ
पिए जा रहे हैं

हम तुम्हारे शहर में नए ही सही
मत हमारी परीक्षा लो हर-पल-घड़ी
हम भी बिछुड़े तुम्हारे ही अपनों से हैं
कुछ भटक जो गए उन्हीं सपनों से हैं
हम स्वयं आँसू पीकर हर इक रात से
प्रात: की शुभ दुआएँ
दिए जा रहे हैं