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तुम सोच रहे हो बस, / आलोक श्रीवास्तव-१

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तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक,

मेरी तो निगाहें हैं सूरज के ठिकानों तक।


टूटे हुए ख़्वाबों की एक लम्बी कहानी है,

शीशे की हवेली से पत्थर के मकानों तक।


दिल आम नहीं करता अहसास की ख़ुशबू को,

बेकार ही लाए हम चाहत को ज़ुबानों तक।


लोबान का सौंधापन, चंदन की महक में है,

मंदिर का तरन्नुम है, मस्जिद की अज़ानों तक।


इक ऎसी अदालत है, जो रुह परखती है,

महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक।


हर वक़्त फ़िज़ाओं में, महसूस करोगे तुम,

मैं प्यार की ख़ुशबू हूँ, महकूंगा ज़मानों तक।