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तू दौड़ता है बन कर मेरा लहू नसों में / गौतम राजरिशी

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तू दौड़ता है हर पल बन के लहू नसों में
तेरे वज़ूद से ही हूँ मैं भी फ़लसफ़ों में

रिश्ता अज़ब ये कैसा है नींद का तेरे संग
तू जो गया तो बीते, हर रात करवटों में

अब उम्र भर न उठ्ठूँ बस ऐसी नींद आये
करना हिसाब है कुछ ख़्वाबों का ख़लवतों में

गुज़री है क्या तेरे बिन आकर कभी तो पढ़ जा
सब रतजगों के क़िस्से बिस्तर की सिलवटों में

तेरी गली में जब से है अपना आना-जाना
कदमों ने तब से चलना सीखा है आँधियों में

है उनको ये शिकायत हूँ दूर-दूर-सा मैं
कह दे कोई ये उनसे हैं वो ही धड़कनों में

दिल से मेरे न कोई पूछे कि क्या है जादू
ख़ामोश-सी निगाहों की उन शरारतों में

तू चाहे जितना हँस ले, मालूम है ये हमको
कितनी उदासियाँ हैं उन्मुक्त कहकहों में






(गुफ़्तगू, जनवरी-मार्च 2012)