भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेज़ चाकू कर लिए चमका के रख लीं लाठियाँ / ज्ञान प्रकाश विवेक
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:13, 9 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक |संग्रह=गुफ़्तगू अवाम से है /...)
तेज़ चाकू कर लिए चमका के रख लीं लाठियाँ
धार्मिक उत्सव की सारी हो चुकी तैयारियाँ
लोग आएँगे तमाशा देखने ये सोच कर
उसनी तपती रेत पे रख दी हैं ज़िन्दा मछलियाँ
तंगदस्ति के वो दिन भी क्या ग़ज़ब थे दोस्तो
भूख लगती जब मुझे तो माँ सुनाती लोरियाँ
मैंने तो उसके महज़ हालात पूछॆ दोस्तो,
उसने मेरे पास रख दीं आँसुओं की अर्ज़ियाँ
बाप कि उँगली पकड़ कर गाँव जाता था कभी
याद आती हैं मुझे वो गर्मियों की छुट्टियाँ
ऐ गुज़िश्ता वक़्त तूने क्या नहीं बख़्शा मुझे
मुफ़लिसी, चश्मे का नम्बर, और कुछ तन्हाइयाँ
देख कर अँगूठियाँ वो रो पड़ा दूकान पर
हाथ उसके थे सलामत पर नहीं थीं उँगलियाँ
कर्ज़ की उम्मीद लेकर मैं गया था जिसके पास
फ़ीस-माफ़ी के लिए वो लिख रहा था अर्ज़ियाँ.