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थोड़ी अनबन और उदासी / महेश अनघ

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थोड़ी अनबन और उदासी
बाकी छेम-कुशल है ।
बाहर वातावरण गरम है
भीतर अभी चुहल है ।।

ये परदेशी ख़तरे
हम तक पता पूछने आए,
पाहुन तो हैं नहीं
देहरी भीतर क्यों बैठाए ।

इनके अगिया बोल
संग में पानी की छागल है ।।
 
कोई खोट नहीं
मुन्ने मुन्नी हरदी चंदन में,
मन है तो सोहर गा लो
बारूद बिछे आँगन में ।

उत्सव अपना ही औरस है
बस थोड़ा पागल है ।।

हाथ नहीं होते हौआ के
फिर काहे का डरना,
कोई उठा के पटक दे तो भी
गिरना जैसे झरना ।
 
साँकल में घुँघरू जड़वा लो
फिर कहना पायल है ।।

यों भी इंतज़ार क्या करना
आसमान गिरने का,
उठो साँस पर साँस जोड़ कर
इधर लगाओ टेका ।

कोई भी कोसे
मंगलिया का अहिवात अचल है ।।