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दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता सामाँ होंगे / मोमिन

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दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता सामाँ होंगे
फ़स्ल माही के गुल-ए-शम्अ, शबिस्ताँ होंगे

करके ज़ख़्मी मुझे नादिम हों यह मुमकिन नहीं
गर वह होंगे भी तो बे-वक़्त पशेमाँ होंगे

तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिजराँ होंगे

एक हम हैं कि हुए ऐसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे

हम निकालेंगे सुन ए मौज-ए-हवा बल तेरा
उसकी ज़ुल्फ़ों के अगर बाल परेशाँ होंग

सब्र यारब मेरी वहशत का पड़ेगा कि नहीं
चारा-फ़रमा भी कभी क़ैदी-ए-ज़िन्दाँ होंगे

दाग़े-दिल निकलेंगे तुरबत से मेरी जूँ-लाला
यह वह अख़गर नहीं जो ख़ाक में पिनहाँ होंगे

चाक परदा से यह ग़मज़े हैं तो ऐ परदानशीं
एक मैं क्या कि सभी चाक-गरेबाँ होंगे

फिर बहार आई वही दश्त नवर्दी होगी
फिर वही पाँव वही ख़ार-ए-मुग़ीलाँ होंगे

मिन्नत-ए-हज़रत-ए-ईसा न उठाएँगे कभी
ज़िन्दगी के लिए शर्मिन्दा-ए-एहसाँ होंगे?

संग और हाथ वही, वह ही सर-ओ-दाग़ए-जुनूँ
वह ही हम होंगे, वही दश्त-ओ-बयाबाँ होंगे

उम्र तो सारी कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
आख़री उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे