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"दम्भपूर्ण अधिकार, स्वार्थ या चिर अबाध वासना-विलास / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल
 
|संग्रह=बलि-निर्वास / गुलाब खंडेलवाल
 
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इंद्र--
 
दम्भपूर्ण अधिकार, स्वार्थ या चिर-अबाध वासना-विलास
 
काल बना देवत्व-हेतु, अनियंत्रित शासन सत्ता ही
 
हाय! सभी दोषों की जड़ थी, भूल गए हम भी हैं दास--
 
प्रकृति-शक्ति के और अमरता भी है अन्य-प्रदत्ता ही.
 
 
 
चली भाग्य से लेकिन किसकी! त्रिभुवन-भर्ता विष्णु स्वयं
 
भाग गए भीगी बिल्ली-से, कुंठित बुद्धि वृहस्पति भी
 
विफल वज्र में प्राण नहीं दे पाए बन करके अक्षम,
 
बलि के बाणों के सम्मुख रुक गयी दिवाकर की गति भी
 
 . . .
 
निज को दूर लिये जाता हूँ तुमसे, मात! क्षमा करना
 
स्वर्गों से सौगुनी बड़ी है और अधिक है प्यारी भी
 
मुझको मेरी प्रिय स्वतंत्रता, मत उदास घुट-घुट मरना
 
अब पतझड़ है तो आयेगी कल वसंत की बारी भी
 
<poem>
 

04:58, 21 जुलाई 2011 के समय का अवतरण