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"दर्द का दस्ताकवेज / राजेश श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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अपराध हमारा यही था, न बगुले हो सके, न भगत हम
 
अपराध हमारा यही था, न बगुले हो सके, न भगत हम
आकर  यहीं  टूट  जाता  है  आपकी  व्याैकरण का क्रम
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आकर  यहीं  टूट  जाता  है  आपकी  व्याकरण का क्रम
 
एक ही तुला पर मत तोलिए सबको
 
एक ही तुला पर मत तोलिए सबको
 
बहुत अन्तार है गंगाजल और जाम के बीच।
 
बहुत अन्तार है गंगाजल और जाम के बीच।

09:13, 10 जून 2013 के समय का अवतरण

दम तोड़ देता है एक पूरा दिन
खुशनुमा सुबह और ढलती हुई शाम के बीच,
भटकती है इसी तरह ये जिंदगी
आरम्भिहक रूदन और अन्तिकम विराम के बीच।


मानता हूँ न बदले हों कभी, ऐसा कोई क्षण नहीं है
क्यों कि इंसानी रिश्तों की मानक व्यांकरण नहीं है
आप मिले भी तो ठहरे हुए पोखरी पानी की तरह
दर्द का दस्ता वेज था, पढ़ गए आप कहानी की तरह
मैं मैं हूं मित्र कोई विज्ञान नहीं
जो भटकें आप कारण और परिणाम के बीच।


आप व्येर्थ ही त्रेता के धोबी-सा संशय पाले हुए हैं
भगत हो सकते हैं पर बगुले भी कहीं काले हुए हैं

अपराध हमारा यही था, न बगुले हो सके, न भगत हम
आकर यहीं टूट जाता है आपकी व्याकरण का क्रम
एक ही तुला पर मत तोलिए सबको
बहुत अन्तार है गंगाजल और जाम के बीच।