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दादा-दादी चुप क्यों रहते / नागेश पांडेय 'संजय'

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दादा-दादी चुप क्यों रहते ?
कारण मैंने जान लिया है।

पापा जी दफ्तर जाते हैं
और लौटते शाम को।
थक जाते हैं इतना
झट से पड़ जाते आराम को।

मम्मी को विद्यालय से ही
समय कहाँ मिल पाता है ?
बहुत पढ़ाना पड़ता उनको,
सर उनका चकराता है।

दादा-दादी से बातें हों
ढेरों कैसे ? तुम्हीं बताओ ।
वक्त ने उन पर बुरी तरह जब
अपना पंजा तान लिया है।

हम बच्चे पढ़-लिख कर आते,
होमवर्क में डट जाते।
फिर अपने साथी बच्चों संग
खेला करते, सुख पाते।

और समय हो, तो कविता की,
चित्रकथा की पुस्तक पढ़ते।
मौज-मजे में, खेल-तमाशे में
ही तो उलझे हैं रहते।

दादा-दादी का कब हमको,
ख्याल जरा भी है आता ?
हम सबने तो जमकर उनकी
ममता का अपमान किया है।

लेकिन जो भी हुआ, सो हुआ
अब ऐसा न हो सोचें।
उनके मन के सूने उपवन
में हम खुशियों को बो दें।

दादा-दादी से हम जी भर,
बतियाएँ, हँस लें, खेलें।
दादा-दादी रहें न चुप-चुप
नहीं अकेलापन झेलें।
मैंने यह सब जब गाया तो
मेरे सारे साथी बोले -
‘हाँ, हम ऐसा करेंगे, हमने
अपने मन में ठान लिया है।