भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिक्काल से परे / अनूप सेठी

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:47, 23 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनूप सेठी }} <Poem> '''1.''' टोकरियाँ खाली पड़ी हैं उड़ गए ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

1.

टोकरियाँ खाली पड़ी हैं
उड़ गए सारे मुर्गे
शहर भर की रसोइयों को खाली कर गए
पंख फड़फड़ाते हुए दो दो फुट की छलांगें लगाई होंगी
दहशत छोड़ गए शहरियों के वास्ते

उसी वक्त जब शहर में मुर्गा फरार कांड हुआ
मैरीन ड्राइव के आखिरी पत्थर की नोक पर खड़े
पंजों के बल एक अधेड़ ने अरब की खाड़ी में छलांग लगाई
लेटा रहा पीठ के बल खाड़ी की छाती पर
नॉर्थ ब्लॉक सकते में आ गया
व्हाइट हाउस हरकत में आने लगा
मर्डोक को अनासक्ति की दडदखड़ लग गई
वैज्ञानिकों की बोलती बंद
ज्योतिषी सिर खुजाने लगे

अलमस्त अधेड़ जाकर सो रहा पंखे के नीचे
खुली हवा में रस्सी पर फहराती रही सफेद चङ्ढी

सुबह सुबह तैयार होकर निकला बाकयदा
लोकल में टनटनाने लगा मंजीरे

गलाफाड़ भजनों के बीच
सबने पढ़ीं अखबारें 


2.


नींद की गोलियाँ खाकर जब सो गया शहर
कसाईबाड़े की मरगिल्ली बकरियां बूढ़ी गैय्यां
बीमार बैल घूरे के सूअर सब उठ खड़े हुए

मुंड्डियां धड़ से जुदा थीं
चीर कर उधेड़ कर खालें जूता कंपनियों का
मुनाफा कमाने ले जाई जा चुकी थीं

जोड़ी मुंड्डियाँ धड़ों से जानवरों ने
अपने बेगाने की परवाह किए बगैर

चल पड़ा माँस मज्जा हड्डियों का खड़खड़ाता जुलूस
ग्लोगल विलेज पर तांडव करता
गलकटी कुकड़ियाँ कुदकने लगीं जुलूस के आगे
जल बिन फुदकती मछलियों ने बना दिए पुल
महाद्वीपों के ऊपर

जहां जहां टपका लहू समुद्र बना जमा हुआ
धरती के कूबड़ में माँस के लोथड़े थे
हड्डियों से चिने गए पर्वत शिखर
मरी हुई साँस ठुंस गई आकाश में

शहरियों ने जब इस तरह खाई सारी कायनात
उदर में शूल उठे, मरोड़ पड़े, अतिसार लगे

फिर बनाई गईं खाई गईं दवाएं
नींद की गोलियां अनगिनत}

 


3.


अरब की खाड़ी में थूथन छिपाए
आँखें मूँदे पड़ा रहता है राजभवन
खारा गँदा पानी
थूथन को रह रह कर चाटता है

कूबड़ पर इमारतें इमारतों में अंधेरे
अंधेरे में लोग लोगों को एसिडिटी

कूबड़ के नीचे जर्द आंखें
आँखों में रेत रेत में ईश्वर के मरे हुए जर्रे

अरब की खाड़ी है पसरी हुई ठेकेदारनी
छपाके मार मार धोती है
जर्रों भरी मुंदी हुई आंखें 

(1994)