भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुख ही अपना है / हरानन्द

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लोग आते हैं
लोग जाते हैं
रात के अंधेरों में
दर्द के क़ाफ़िले रह जाते हैं
सुख की चाहत में
उम्र निकल जाती है
दुःख की नदी
हर कदम पर
गहराती है।

इसके दलदली किनारों पर
भूखे घड़ियाल सोते हैं
पीपल के पेड़ पर
सिद्धार्थ जहाँ रोते हैं
हाँ, दुःख है दुनिया में
पर निदान कहाँ इसका
सब आँसुओं में
डूबे हैं
कौन यहां किसका।

दुःख के दरिया में
डूबकर जाना है
आंसू तो अपने हैं
शहर बेगाना है।
 
पर इस नदी का
जल बड़ा निर्मल है
थोड़ा मन धुल गया
थोड़ा श्यामल है
अन्तर्दृष्टियां उभरी हैं
छोटे-छोटे द्वीपों की तरह
नदी जो बहती है
बहुत गहरी है
पर
उस पार उतरना है
जाना है
यह सफ़र ही अपना है
बाकी सब सपना है।
आज मैंने जाना है
दुःख ही अपना है

सुख मौसमी हवाओं की
तरह आते हैं
हाथों में रेत
आँखों में किरचियाँ छोड़ जाते हैं