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दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ / अकबर इलाहाबादी

Kavita Kosh से
Sumitkumar kataria (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 16:09, 29 अप्रैल 2008 का अवतरण (हिज्जे)

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दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीददार नहीं हूँ

तलबगार= इच्छुक, चाहने वाला

ज़िन्दा हूँ मगर ज़ीस्त की लज़्ज़त नहीं बाक़ी
हर चांद की हूँ होश में, होशियार नहीं हूँ

ज़ीस्त= जीवन; लज़्ज़त= स्वाद

इस ख़ाना-ए-हस्त से गुज़र जाऊंगा बेलौस
साया हूँ फ़क़्त, नक़्श बेदीवार नहीं हूँ

ख़ाना-ए-हस्त= अस्तित्व का घर; बेलौस= लांछन के बिना
फ़क़्त= केवल; नक़्श= चिन्ह, चित्र

अफ़सुर्दा हूँ इबारत से, दवा की नहीं हाजित
गम़ का मुझे ये जो’फ़ है, बीमार नहीं हूँ

अफ़सुर्दा= निराश; इबारत= शब्द, लेख; हाजित(हाजत)= आवश्यकता
जो’फ़(ज़ौफ़)= कमजोरी,क्षीणता

वो गुल हूँ ख़िज़ां ने जिसे बरबाद किया है
उलझूँ किसी दामन से मैं वो ख़ार नहीं हूँ

गुल=फूल; ख़िज़ां= पतझड़; ख़ार= कांटा

यारब मुझे महफ़ूस रख उस बुत के सितम से
मैं उस की इनायत का तलबगार नहीं हूँ

महफ़ूस= सुरक्षित; इनायत= कृपा; तलबगार= इच्छुक

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़ की कुछ हद नहीं “अकबर”
काफ़िर के मुक़ाबिल में भी दींदार नहीं हूँ

अफ़सुर्दगी-ओ-जौफ़=निराशा और क्षीणता;काफ़िर=नास्तिक; दींदार=आस्तिक,धर्म का पालन करने वाला