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"दुर्गम्या / प्रतिभा सक्सेना" के अवतरणों में अंतर

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मुख तमतमाया क्रोध-विकृत !
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नीचे झुकी, उठा लिया वही पत्थर
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आघात जिसका उछाल रहा था रक्त!
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भरी आक्रोश
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मार डाला रे !
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भीड़ हतबुद्ध, भयभीत !
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और दूसरा पत्थर उठाये दौड़ी!
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अब पीछा वह कर रही थी ,
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भाग रहे थे  लोग !
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फिर फेंका उसने ,घुमा कर पूरे वेग से !
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फिर चीख उटी !
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उठाया एक और !
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भयभीत, भाग रही हैं भीड़ !
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प्रचंड चंडिका  !
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सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर !
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पशुओं से क्या लाज ?
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ये बातें अब बे-मानी थीं !
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दौड़ रही है ,निर्भय उनके पीछे ,हाथ में पत्थर लिये
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जान लेकर भाग रहे हैं लोग !
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भीत ,त्रस्त ,
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सब के सब ,एक साथ गिरते-पड़ते ,
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अँधाधुंध  इधर-उधर !
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तितर-बितर !
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थूक दिया उसने उन कायरों की पीठ पर !
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और
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श्लथ ,वेदना - विकृत,
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रक्त ओढ़े दिगंबरी ,
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बैठ गई वहीं धरती पर !
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पता नहीं कितनी देर !
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फिर उठी , चल दी एक ओर !
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अगले दिन खोज पड़ी
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कहां गई चण्डी ?
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कहाँ गायब हो गई?
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पूछ रहे थे  एक दूसरे से ।
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कहीं नहीं थी वह !
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वहां कोई शिव नहीं था !
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सब शव थे  !
  
 
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09:05, 28 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण

कोई तोहमत जड़ दो औरत पर ,
कौन है रोकनेवाला !
कर दो चरित्र हत्या ,
या धर दो कोई आरोप !
हटा दो रास्ते से !


हाँ ,वे दौड़ा रहे हैं सड़क पर
 'टोनही है यह ',
'नज़र गड़ा चूस लेती है बच्चों का ख़ून!'
उछल-उछल कर पत्थर फेंकते ,
चीख़ते ,पीछे भाग रहे हैं !
खेल रहे हैं अपना खेल !


अकेली औरत ,
भागेगी कहाँ भीड़ से !
चोटों से छलकता खून
प्यासे हैं लोग !
सहने की सीमा पार ,
जिजीविषा भभक उठी खा-खा कर वार !


भागी नहीं ,चीखी नहीं !
धिक्कार भरी दृष्टि डालती
सीधी खड़ी हो गई
मुख तमतमाया क्रोध-विकृत !
आँखें जल उठीं दप्-दप् !
लौट पड़ी वह  !


नीचे झुकी, उठा लिया वही पत्थर
आघात जिसका उछाल रहा था रक्त!
भरी आक्रोश
तान कर मारा पीछा करतों पर !
'हाय रे ,चीत्कार उठा ,
मार डाला रे !
भीड़ हतबुद्ध, भयभीत !


और दूसरा पत्थर उठाये दौड़ी!
अब पीछा वह कर रही थी ,
भाग रहे थे लोग !
फिर फेंका उसने ,घुमा कर पूरे वेग से !
फिर चीख उटी !
उठाया एक और !


भयभीत, भाग रही हैं भीड़ !
कर रही है पीछा
अट्टहास करते हुये
प्रचंड चंडिका  !


धज्जियां कर डालीं थीं वस्त्रों की
उन लोगों ने ,
नारी-तन बेग़ैरत करने को !
सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर !
पशुओं से क्या लाज ?
ये बातें अब बे-मानी थीं !


दौड़ रही है ,निर्भय उनके पीछे ,हाथ में पत्थर लिये
जान लेकर भाग रहे हैं लोग !
भीत ,त्रस्त ,
सब के सब ,एक साथ गिरते-पड़ते ,
 अँधाधुंध इधर-उधर !
 तितर-बितर !
थूक दिया उसने उन कायरों की पीठ पर !


और
श्लथ ,वेदना - विकृत,
रक्त ओढ़े दिगंबरी ,
बैठ गई वहीं धरती पर !
पता नहीं कितनी देर !
फिर उठी , चल दी एक ओर !


अगले दिन खोज पड़ी
कहां गई चण्डी ?
कहाँ गायब हो गई?
पूछ रहे थे एक दूसरे से ।
कहीं नहीं थी वह !


उधऱ कुयें में उतरा आया मृत शरीर !
दिगंबरा चण्डी को वहन कर सक जो
वहां कोई शिव नहीं था !
सब शव थे  !