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दिल में आता है लगा दें, आग मयख़ाने को हम।।
हमको फँसना था क़फ़सक़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद का।
बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम।।
ताके अबरू बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल। अब कहाँ ले जाके बेठाऐं ऐसे दीवाने को हम।। ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई।
अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम।।
क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए ‘नज़ीर’
ताकि शादी-मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम।।
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