भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देखते जाओ मगर कुछ भी / क़तील

Kavita Kosh से
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:04, 16 फ़रवरी 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखते जाओ मगर कुछ भी जुबां से न कहो |
मसलिहत का ये तकाज़ा है की खामोश रहो ||

लोग देखंगे तो अफसाना बना डालेंगे|
यूँ मेरे दिल में चले आओ के आहट भी न हो||

गुनगुनाती हुई रफ्तार बड़ी नेमत है|
तुम चट्टानों से भी फूटो तो नदी बन के बहो||

ग़म कोई भी हो जवानी में मज़ा देता है|
ग़म-ए-जहाँ जो नहीं है ग़म-ए-दौरान ही सहो||

हो चुके प्यार में रुसवा सर-ए-बाज़ार क़तील|
अब कोई हम को नहीं फ़िक्र जो होना है सो हो||