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देहगीत 2 / एम० के० मधु

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जब-जब तूफान से लड़कर
थकहार कर बैठता हूं
एकांत, निश्चल, निश्वास
कोने में पड़े
खिड़की की तेज हवा के थपेड़े खाते
दीये को बुझने से बचाते हुए

जब-जब सुनामी सी लहर को
अपनी छाती पर झेल कर
रेत पर रेत की तरह बिखर जाता हूं
किनारे पड़ी कश्ती को
उलटने से रोकते हुए

जब-जब मैदान में
दो भैसों के हिंसक यु्द्ध को
देखते-देखते आंखें पथरा जाती हैं
और तकने लगता हूं शून्य को
निर्निमेष, निर्विकार
किसी अनबुझे जंग की आहट को नापते हुए

जब-जब अहिंसा के उहापोह के
थप्पर गालों पर खा कर
उनींदी आंखों के साथ
लेट जाता हूं धरती और आकाश के बीच
निश्चिंत, निष्ताप
महात्मा के सत्य को
हृदय के कोने में लुकाते-छिपाते हुए

जब-जब अपने ही शब्दों की बाजीगरी से
कर लेता हूं लहूलुहान अपनी काया
और किसी कचरे के मलबे का सहारा लेकर
अधलेटा हो जाता हूं चुपचाप
मलबे पर फेंके हुए कैक्टस से
संजीवनी तलाशते हुए

तब-तब प्रिये!
ढूंढ़ता हूं तुम्हारी देह
जिसमें बजता है
नदी की चंचल लहरों का संगीत
और नाव लेकर लौटते मांझी का गीत
देह में डूब जाती है देह
सब कुछ शांत
केवल बजता रहता है देहगीत
पृथ्वी के इस छोर से
उस छोर तक
प्रिये! बजने दो इसे
इस क्षण से
अंतिम क्षण तक।