भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोसर खण्‍ड / भाग 1 / बैजू मिश्र 'देहाती'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आएल तखनहि जनकक पत्र,
भेला निमंत्रित विश्वामित्र।
हैत जानकिक सुखद विवाह,
करू सफल सुख होयत अथाह।
राम, लखन शिष्यहुँ कए संग,
चलला ऋषिवर ताहि प्रसंग।
विपिन मध्य देखल श्रीराम,
कुटी एक छल बनल सुठाम।
यज्ञ कुण्ड छल बनल अनेक,
भव्य शिला छल सेहो एक।
सभ किछु रहितहु जनक अभाव,
कहइत बहु प्राचीन प्रभाव।
ऋषिवर सँ पूछल श्रीराम,
अछि किनकर ई पावन धाम।
पूर्व कथा ऋषि कहल बुझाए,
आदि अंत निस्तार उपाए।
गौतम ऋषि सतयुगक प्रतीक,
भेला कुलाधिप सकल यतीक।
जपतप ध्यान ज्ञान विज्ञान,
ऋषि छला सब शास्त्र निधान।
छली अहिल्या हिनके नारि,
भव्य रूप सभगुण आगारि।
पालथि सतत् पतिव्रत धर्म,
पति सेवा छल हिनकर कर्म।
विधिक विधान कहल नहि जाए,
कौखल ऋषिवर गेला रिषाए।
क्रोध विवस दए देलनि शाप,
शीला होउ फल भोगू पाप।
खसलि चरण ऋषि, कहलि बुझाए,
सती, नयन जल धार बहाए।
छमिय नाथ हम छी निर्दोष,
होउ शान्त तजि सभटा रोष।
सति वचन छल करूणां क्रांत,
ऋषि क्रोध, सुनितहि भेल शांत।
निष्फल नहि जयत ई शाप,
ऋषि बजला, कत करू संताप।
हैत निवारण तकर उपाए,
कहइत छी सुनु कान लगाए।
त्रेता युग मे अओता राम,
तखनहि सफल हैत मनकाम।
कहल राम कें विश्वामित्र,
आयल अछि ओ समय पवित्र।
शिला स्पर्स कयलनि श्रीराम,
पुरल अहिल्या केर मन काम।
चरण पकड़ि स्तुति कयल सुनारि,
धन्य भेलहु प्रभु हे असुरारि।
ऋषि उत्तम कयलनि दए शाम,
जन्म जन्मके मेटल ताप।
स्वयं आबि कयलहुँ उद्धार,
सर्व विदित हे करूणागार।
हम छी नारि अधम अज्ञान,
त्रिभुवन पति अहं दया निधान।
सतिक करूणा वच सुनि श्रीराम,
देल आशीष जाउ पति धाम।
सती अहिल्या ताड़िकें, चलला गुरू केर संग।
रामचन्द्र लक्ष्मण सहित, होयत जत धनु भंग।
निकट पहुँचि देखल श्रीराम,
पावन धरणि परम सुख धाम।
नगर बनल छल अतिसैं सुन्दर,
लखि लज्जित छल लोक पुरन्दर।
जहँतहँ लागत विटप कतार,
आगतकें जनु कर सत्कार।
सुमन परोसए बाटे बाट,
पग नहि छूबए पाहन कांट।
सारस, हंसक विपुल समाज,
शुक, पिक, पनहर पक्षीराज।
पक्षी गण मिलि करए किलोल,
सुमधुर स्वर कानक प्रिय बोल।
ठाम-ठाम छल बनल तड़ाग,
जल मिश्रित छ ल पद्म पराग।
रंग विरंगक छल प्रासाद,
देखि हरै छल मन अवसाद।
फुलवारी छल विविध प्रकार,
छोट पैघ पुनि मध्य अकार।
विविध प्राकरक पुष्प सुगंध,
परसए अनुखन बिनु प्रतिबंध।
सतत् गूंजि अलि दए अभास,
रह वसंत तहँ बारह मास।
ऋषिवर अएला, सुनल विदेह,
स्वागत हित बहु उपजल नेह।
मंत्रिगणक संग झट-झट आबि,
धन्य भेला शुभदर्शन पाबि।
विश्रामक गृह देल नरेश,
उत्म कोटिक महल विशेष।
प्रहर एक कयलनि विश्राम,
लखन सहित पुनि चलला राम।
देखए नगरक दृश्य अनूप,
बनल जेना छल स्वर्ग स्वरूप।
झुंड बालकक धयलक संग,
छवि विलोकि जनु कोटि अनंग।
जेम्हर जाथि तेम्हररूक नरनारि,
देथि बाटकें झारी बहारि।